बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस जख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
एक बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
एक दरख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आई
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा
किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आखिर
वह जहर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा
2 टिप्पणियां:
एक दरख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आई
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा
-आह! वाह! बहुत खूब कहा!
शुक्रिया
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