मंगलवार, 29 जून 2010

मैंने नहीं देखा...


बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

इस जख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

एक बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश

फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

एक दरख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आई

जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आखिर

वह जहर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

एक दरख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आई
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा

-आह! वाह! बहुत खूब कहा!

Syed Akhlaque Abdullah ने कहा…

शुक्रिया