रविवार, 21 अगस्त 2011

आज के दौर में पागल है हँसी ढूंढ़ता है
पत्थरों की बनी आँखों में नमी ढ़ूंढ़ता है

अपनी कमी वह कभी दूर नहीं कर पाएगा
जिस की आदत है जो औरों में कमी ढ़ूंढ़ता है

अपना हक़ माँगता है दिल्ली से..पागल है क्या
ज़हर के शहर में मिशरी की डली ढ़ूंढ़ता है

'हजारे ख़्वाहिशें ऐसी'




अन्ना का आंदोलन चाहे जितने अच्छे इरादे से किया जा रहा हो,
सबसे बड़ी भूमिका के रूप में उभरा है मीडिया, खासकर इल्केट्रानिक मीडिया
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के आगे दूसरी तमाम ख़बरों का गला घोंट रहा है।
अन्ना हजारे का आंदोलन आज देश का आंदोलन बन गया है। बच्चे,बूढ़े, जवान,
महिलाएं कोई तबका ऐसा नहीं है जो इस आंदोलन में शामिल ना हुआ हो।इतना
बड़ा जनसैलाब उमड़ा तो केवल मीडिया की वजह से, इस जनसैलाब में शामिल
होने के लिए लोगों को उकसाता हुआ भी नज़र आया। देश के कोने-कोने से लोग
देश की राजधानी में जमा हुए इतनी भीड़ शायद ही कभी देखने को मिलेगी। इस
आंदोलन ने अगर किसी का बेड़ा गर्क किया है तो वो है 'बॉलीवुड'। बॉक्स ऑफिस
की सांसे अटकी हुई है,लोग या तो घर बैठकर टीवी पर आंदोलन देख रहे है या
फिर आंदोलन में शामिल हो रहे हैं, सिनेमा हॉल खाली जा पड़े हैं, बड़े फाइनेंसर
और डॉयरेक्टर इन दिनों अपनी फिल्म रिलीज करते हुए भी डर रहे हैं। आंदोलन
के इस खेल में न्यूज़ चैनल टीआरपी बटोरने में कामयाब हो गए।
आख़िर क्यों ना हो 21 वीं सदी का गांधी जो हमारे बीच है।

शुक्रवार, 24 जून 2011

फिर कहीं दूर से एक बार सदा दो मुझको,
मेरी तन्हाई का एहसास दिला दो मुझको.
एक घुटन सी है फ़िजा में के सुलगता हूं मैं,
जल उठूंगा कभी दामन की हवा दो मुझको.
मैं समंदर हूं खामोशी मेरी मजबूरी है,
दे सको तो किसी तूफान की दुआ दो मुझको.


रविवार, 15 मई 2011

जाने कौन



सदियों-सदियों वही तमाशा रस्ता-रस्ता लम्बी खोज

लेकिन जब हम मिल जाते है खो जाते है जाने कौन

किरन-किरन अलसाता सूरज पलक-पलक खुलती नींद

धीमे-धीमे बिखर रहा है जरा-जरा जाने कौन

मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन...

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011


नींद भरी आंखों से एक सपना देखा

दूर...मगर मैंने कोई अपना देखा

उसके कदमों की आहट सुनाई देती है

जिसे मैंने एक जमाने से नहीं देखा

वो लौट आएगी..इस बात का य़कीं था मुझे

पर कभी किसी को इतनी देर करते नहीं देखा

मंगलवार, 29 जून 2010

मैंने नहीं देखा...


बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

इस जख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

एक बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश

फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

एक दरख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आई

जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आखिर

वह जहर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

शनिवार, 26 जून 2010

ये दूरियां...



पल में दूरी हो जाती है जात अधूरी हो जाती है


आंखों में नींद आती नहीं रात पूरी हो जाती है


पहले तो होती है चाहत फिर मजबूरी हो जाती है


कुछ लोगों की लम्हें भर में ख्वाहिश पूरी हो जाती है


हद से प्यार गुजर जाए तो अक्सर दूरी हो जाती है